Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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सूरदास ने इसका कुछ उत्तार न दिया। वह सोच रहा था कि मिठुआ की बात साहब से कह दूँ या नहीं। उसने कड़ी कसम रखाई है। पर कह देना ही उचित है। लौंडा हठी और कुचाली है, उस पर घीसू का साथ, कोई-न-कोई अनीति अवश्य करेगा। कसम रखा देने से तो मुझे हत्या लगती नहीं। कहीं कुछ नटखटी कर बैठा तो साहब समझेंगे, अंधो ने मरने के बाद भी बैर निभाया। बोला-साहब, आपसे एक बात कहना चाहता हूँ।
सेवक-कहो, शौक से कहो।
सूरदास ने संक्षिप्त रूप से मिठुआ की अनर्गल बातें मि. सेवक से कह सुनाई और अंत में बोला-मेरी आपसे इतनी ही बिनती है कि उस पर कड़ी निगाह रखिएगा। अगर अवसर पा गया तो चूकनेवाला नहीं है। तब आपको भी उस पर क्रोध आ ही जाएगा, और आप उसे दंड देने का उपाय सोचेंगे। मैं इन दोनों बातों में से एक भी नहीं चाहता।
सेवक अन्य धनी पुरुषों की भाँति बदमाशों से बहुत डरते थे, सशंक होकर बोले-सूरदास, तुमने मुझे होशियार कर दिया, इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझमें और तुममें यही अंतर है। मैं तुम्हें कभी यों सचेत न करता। किसी दूसरे के हाथों तुम्हारी गरदन कटते देखकर भी कदाचित् मेरे मन में दया न आती। कसाई भी सदय और निर्दय हो सकते हैं। हम लोग द्वेष में निर्दय कसाइयों से भी बढ़ जाते हैं। (सोफिया से अंगरेजी में) बड़ा सत्यप्रिय आदमी है। कदाचित् संसार ऐसे आदमियों के रहने का स्थान नहीं है। मुझे एक छिपे हुए शत्रु से बचाना अपना कर्तव्य समझता है। यह तो भतीजा है; किंतु पुत्र की बात होती, तो भी मुझे अवश्य सतर्क कर देता।
सोफिया-मुझे तो अब विश्वास होता है कि शिक्षा धूर्तों की स्रष्टा है, प्रकृति सत्पुरुषों की।
जॉन सेवक को यह बात कुछ रुचिकर न लगी। शिक्षा की इतनी निंदा उन्हें असह्य थी। बोले-सूरदास, मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताओ।
सूरदास-कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।
सेवक-नहीं-नहीं, जो कुछ कहना चाहते हो, निस्संकोच होकर कहो।
सूरदास-ताहिर अली को फिर नौकर रख लीजिएगा। उनके बाल-बच्चे बड़े कष्ट में हैं।
सेवक-सूरदास, मुझे अत्यंत खेद है कि मैं तुम्हारे आदेश का पालन न कर सकूँगा। किसी नीयत के बुरे आदमी को आश्रय देना मेरे नियम के विरुध्द है। मुझे तुम्हारी बात न मानने का बहुत खेद है; पर यह मेरे जीवन का एक प्रधान सिध्दांत है, और उसे तोड़ नहीं सकता।
सूरदास-दया कभी नियम-विरुध्द नहीं होती।
सेवक-मैं इतना कर सकता हूँ कि ताहिर अली के बाल-बच्चों का पालन-पोषण करता रहूँ। लेकिन उसे नौकर न रखूँगा।
सूरदास-जैसी आपकी इच्छा। किसी तरह उन गरीबों की परवस्ती होनी चाहिए।
अभी ये बातें हो रही थीं कि रानी जाह्नवी की मोटर आ पहुँची। रानी उतरकर सोफिया के पास आईं और बोलीं-बेटी, क्षमा करना, मुझे बड़ी देर हो गई। तुम घबराईं तो नहीं? भिक्षुकों को भोजन कराकर यहाँ आने को घर से निकली, तो कुँवर साहब आ गए। बातों-बातों में उनसे झड़प हो गई। बुढ़ापे में मनुष्य क्यों इतना मायांध हो जाता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। क्यों मि. सेवक, आपका क्या अनुभव है?
सेवक-मैंने दोनों ही प्रकार के चरित्र देखे हैं। अगर प्रभु धन को तृण समझता है, तो पिताजी को फीकी चाय, सादी चपातियाँ और धुँधली रोशनी पसंद है। इसके प्रतिकूल डॉ. गांगुली हैं कि जिनकी आमदनी खर्च के लिए काफी नहीं होती और राजा महेंद्रकुमार सिंह,जिनके यहाँ धोले तक का हिसाब लिखा जाता है।
यों बातें करते हुए लोग मोटरों की तरफ चले। मि. सेवक तो अपने बँगले पर गए; सोफिया रानी के साथ सेवा-भवन गई।

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